Sunday, December 12, 2010

दशा दस दिन या दस साल - जागो झारखंड


चाहे बात व्यक्तिगत हो या फिर समाज की, प्रश्नों के उत्तर नहीं ढुंढता तो इंसान गुफा युग में ही रहता या शायद और पीछे अनस्तित्व की ओर चला जाता। झारखंड में सबसे बड़ा और मुश्किल सवाल क्या है ? यही ना कि जनता दस साल से झारखंड में राज्य गठन के अच्छे नतीजों का इंतजार कर रही है और स्थिति बद से बदतर क्यों होती जा रही है ? नए राज्य के औचित्य पर लगा ये प्रश्नचिह्न दस साल से पलता-बढ़ता और मुश्किल होता आ रहा है।
आधुनिक लोकतंत्र की पृष्ठभूमि में संघीय राष्ट्र भारत, अपने समाजवादी, धर्मनिर्पेक्ष और लोककल्याणकारी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए, राज्य को जो शक्तियां देता है, झारखंड के दस साल उसके दुरुपयोग की कहानी हैं। कम से कम 6 दशक तक क्षेत्रीय आकांक्षाओं को खाद-पानी देकर उगाई गई राजसत्ता अब निरंकुश विषबेल लगने लगी है। इतिहास और संबद्ध पक्षों के परिप्रेक्ष्य में भूमि समेत प्राकृतिक संसाधनों के न्यायपूर्ण और विवेकशील प्रयोग से भौतिक उन्नति की एक मौलिक परिकल्पना का नाम है झारखंड, जो अब किश्तों में विखंडित हो रही है। इधर झारखंड के साथ अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड निरंतर प्रगति कर रहे हैं। सवाल उठता है कि आखिर झारखंड के साथ ऐसा क्यों ? भारत के तीनों नवीनतम राज्यों-उत्तराखंड,छत्तीसगढ़ और झारखंड की मांग को लम्बे समय तक कुछ खास भौगोलिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियां प्रेरणा प्रदान करती रहीं, मगर इन राज्यों का निर्माण शुद्ध राजनीतिक कारणों के प्रभाव में आने से हुआ। इसलिए राज्य निर्माण को नागरिकों के लिए एक नया बिहान मान लेना सतही निष्कर्ष माना जा सकता है, लेकिन साल 2000 के शुरुआती महीनों में दक्षिणी बिहार के अठारह जिलों में इसको लेकर काफी उत्साह था। इस उत्साह ने विधानसभा चुनाव में भाजपा को दक्षिण बिहार में अच्छी सफलता भी दिलाई। मगर राज्य बनने से पहले ही सत्ता का खेल भी शुरू हो गया। विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद बिहार की कुर्सी हथियाने के लिए नीतीश कुमार ने बारह विधायकों के नेता शिबू सोरेन को झारखंड की कुर्सी का ख्वाब दिखा दिया। नीतीश की सरकार ने एक सप्ताह में दम तोड़ दिया और गुरूजी का ख्वाब आज भी उधार मांगता फिर रहा है। झारखंड-वनांचल की राजनीति के पैरोकारों ने इससे पहले भी कई बार ये संकेत दे दिए थे कि नए राज्य में इनकी सबसे ज्यादा दिलचस्पी सत्ता हासिल करने को लेकर है और ये भी कि सत्ता हाथ में आ जाने के बाद क्या-क्या कर सकते हैं। जाहिर तौर पर छोटा राज्य व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के लिए सुविधाजनक विकल्प था। लोकतांत्रिक सरकारों में निर्लज्ज स्वार्थ से प्रेरित तत्वों की मौजूदगी हमेशा और हर जगह रही है। लेकिन सगरे कूप में भंग पड़ी है, ये कौन जानता था। इसका एहसास पहली बार 2003 में हुआ, जब मुख्यमंत्री बदल गया मगर इस घटना से जुड़े किसी भी पक्ष ने इसका जायज कारण पूछने या बताने की ज़रूरत नहीं समझी। जुगाड़ के बहुमत पर टिकी राज्य की पहली भाजपा नीत सरकार मार्च 2003 में लड़खड़ाई तो जैसे सुबह के सूरज पर अनिश्चितता के बादलों का ग्रहण लग गया। तब से लेकर आज तक झारखंड की जनता ऐसी सरकारों का एक जुलूस देख रही है , जो अलग-अलग होकर भी एक जैसी लगती हैं। सत्ता का चरित्र हमेशा एक जैसा दिखाई देता है भले पात्र लगातार बदलते रहते हैं। विकृतियों को प्रयोगों का नाम देकर पचाया जाता है। पहली बार चुनकर आए विधायक मंत्री बनाए गए, बिना बहुमत जुटाए सरकार बना ली गई, विधायकों को घोड़ों की तरह न सिर्फ खरीदा-बेचा गया बल्कि भगाया और बचाया भी गया, दिल्ली की परिक्रमा सत्ता अधिग्रहण के पहले का कर्मकांड बन गई तो राज्यपाल राजसूय में पुरोहित बने। कहां तो अल्पमत की सरकारे निर्दलियों की बैसाखी पर टिकाई जाती है, यहां तो निर्दलियों ने दलों को सिंहासन का पाया बना दिया। कहां तो बाप की विरासत बेटा संभालता है, यहां तो जेलयात्रा पर गए बेटे की जगह बाप को मंत्री बनाया गया। राजनीति का सरोकारों से नाता खत्म हो गया, भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया, नौकरशाही ने राजनीतिक रंग-ढंग अपना लिए, नीति-रीति का एक नाम हो गया – मौकापरस्ती। हद है, यहां तो वामपंथी चरमपंथ भी मौके का फायदा उठाने वाला एक किरदार दिखाई देता है। अब तो बड़ी से बड़ी बात हो जाए जायज-नाजायाज कोई भी जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी जाती। ताजा प्रसंग है, एक बार संसद में वोट देकर शिबू सोरेन ने मधु कोड़ा की कुर्सी छीन ली, मगर विधानसभा की सीट नहीं जीत पाए, इसीलिए कुर्सी चली गई। राष्ट्रपति शासन लगा, फिर से विधानसभा के चुनाव हुए। शिबू सोरेन ने विधायक बनने की ज़रूरत नहीं समझी, लेकिन नया गठबंधन बना और फिर से मुख्यमंत्री बन गए। संसद की सीट छोड़ी नहीं थी, इसलिए फिर वोट देने चले गए। जिस गठबंधन को वोट देकर पिछली बार कुर्सी हासिल की थी, उसी गठबंधन को इस बार वोट दिया तो कुर्सी चली गई। फिर राष्ट्रपति शासन लगा। चार महीने बाद चेहरा बदलकर फिर से वही सरकार आ गई। सिर्फ मुख्यमंत्री बदल गया बाकी सब वही। ये तो बस एक नमूना है, दस साल में ऐसी कम से कम सौ कहानियां तो सबसे सामने हैं, पर्दे के पीछे हज़ारों होंगी। घोर विस्मय की बात है कि जोकुछ बेपर्दा हुआ, जिसकी खूब चर्चा हुई , जनादेश में उसका भी असर दिखाई नहीं देता। 2009 के विधानसभा चुनावों के परिणाम देखने से साफ तौर पर पता लग जाता है कि राजनीतिक हिस्सेदारी तय करने में झारखंड की जनता किस कदर उदासीन है। झारखंड में हर तरह की नाकामी का ठीकरा स्थायित्व की कमी के सिर फोड़ा जाता है, मगर चुनाव परिणामों में स्थायीत्व के लिए कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। दरअसल, व्यवस्था और व्यवस्था की मालिक जनता के बीच गहरी खाई तैयार हो चुकी है, दोनों एक दूसरे के प्रति उदासीन हैं और एक दूसरे पर इसकी जिम्मेदारी टालते से दिखते हैं। नागरिक फौरी समस्याओं के समाधान में राज्य की मदद चाहता है और उम्मीद करता है कि दीर्घकाल में राज्य उसके लिए बेहतर जीवन-स्तर के अवसर प्रदान करेगा। मिला जुलाकर कानून-व्यवस्था, वित्तीय प्रबंधन, मूल्य-नियंत्रण और आधारभूत संरचना की स्थिति शासन-प्रशासन की कुशलता का पैमाना माने जाते हैं। इन कसौटियों पर झारखंड की स्थिति फिसड्डी है। सरकारें यहां ट्रांस्फर-पोस्टिंग और ठेका-पट्टा से आगे बढ़ती ही नहीं। राजनीतिक नेतृत्व में दीर्घकालीन सोच और नीति का अभाव है। सत्ता में बने रहने अपने आप में इतनी बड़ी चुनौती साबित होती है कि सरकारें उससे आगे सोच ही नहीं पातीं। शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क, रोजगार आदि की तो बात छोड़िए, सुखाड़ और अकाल के मौकों पर भी सरकार जनता को प्रभावी मदद करने में विफल हुई है। यानि दीर्घकालीन नीति के अभाव में विकास की नींव कमजोर हो रही है और मौके-बेमौके आने वाली आपदाएं उसपर कहर बरपा रही हैं। साल 2009 का सूखा इस बात का ताजा प्रमाण है। राज्य के सभी जिले सूखा प्रभावित घोषित किए गए। अक्टूबर तक धान को रोपाई में पिछले साल के मुकाबल 55 फीसदी, मकई में 70 फीसदी और मोटे अनाजों में 71 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। मगर सरकार की तरफ से बीपीएल परिवारों के बीच थोड़ा सा अनाज बांटने के अलावा कुछ खास नहीं किया गया। नतीजा, 2009 का सूखा गरीबी के दुश्चक्र की जटिलता बढ़ाने में सहायक हुआ। राज्य गठन के समय यहां गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों की आबादी 54 प्रतिशत थी। योजना आयोग के मुताबिक अब गरीबी का अनुपात 40.3 के आस-पास है। राज्य सरकार केन्द्र से गरीबी के जिस आंकड़े के आधार पर मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध कराने की मांग कर रही है वो 60 फीसदी के आस-पास है। लेकिन हाल में किया गया एक सर्वेक्षण कुछ आंकड़ों के साथ-साथ पूरी कहानी बयां करता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने मानव विकास रिपोर्ट – 2010 की तैयारियों के संदर्भ में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग से एक बहुआयामी गरीबी सूचकांक(मल्टी-डायमेन्शनल पावर्टी इंडेक्स - एमपीआई) तैयार करवाया है। इसके मुताबिक झारखंड की 77 फीसदी आबादी वंचितों की श्रेणी में आती है और बिहार से अलग होने के दस साल बात भी इसकी स्थिति सिर्फ बिहार (81.4 फीसदी) से ही बेहतर है। यहां पर वंचित या गरीब होने का मतलब सिर्फ आय के एक निश्चित स्तर से नीचे होना नहीं है, बल्कि यहां मतलब है जीवन स्तर, शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित दस सूचकों के मामले में ज़रूरत का तीस फीसदी भी हासिल ना होना। ये सूचक हैं – 1.परिसंपति 2.खाना बनाने का इंधन 3.आवास 4.पेयजल 5.स्वच्छता 6.बिजली की उपलब्धता 7.पोषण 8.बाल मृत्युदर 9.स्कूलों में निबंधन 10.स्कूलिंग। सर्वे का निष्कर्ष ये है कि झारखंड की 77 फीसदी जनसंख्या को इन दस सूचकों के मामले में गरीब है। यानि सिर्फ 23 फीसदी लोग ऐसे हैं जिन्हें कम से कम ज़रूरत भर या उससे अच्छा जीवन स्तर और स्वास्थ्य एवं शिक्षा की सुविधा हासिल है। यहां कौन 77 फीसदी में शामिल है और कौन 23 फीसदी में ये भी आगे साफ हो जाएगा। मगर गौरतलब है कि ये सिर्फ ‘विपन्नता’ नहीं, ’सम्पन्नता में विपन्नता’ की तस्वीर है, क्योंकि झारखंड में अर्थव्यवस्था के तीनो क्षेत्रों – प्राथमिक(कृषि,वानिकी आदि), द्वितियक(औद्योगित उत्पादन,विनिर्माण आदि) और तृतियक(सेवा क्षेत्र) के विकास के लिए प्रचुर संसाधन मौजूद हैं। वैसे तो अनुमान 80 फीसदी का है मगर राज्य सरकार के मुताबिक झारखंड में जनसंख्या का 70 फीसदी आज भी पूरी तरह कृषि पर आश्रित है। भूमि की कमी नहीं है, लेकिन उसे कृषि योग्य बनाकर फसलें उगाना एक चुनौती है। कृषि से संबंधित गतिविधियों (पशुपालन,मत्स्य पालन,पाल्ट्री,प्रोसेसिंग इत्यादि) के लिए माकूल स्थितियां हैं। मगर सबको पता है कि झारखंड में खेती बेहद पिछड़े हालात में है, हर मोर्चे पर फीसड्डी। कृषि के विकास के लिए दीर्घकालीन रणनीति बनाकर उसे दृढ़ता से लागू करने पर दस-बीस साल में कुछ हो सकता है। और कृषि पर आश्रित जनसंख्या के अनुपात को देखते हुए बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि झारखंड का चाहे जितना विकास हो जाए कृषि की हालत नहीं सुधरी तो इस राज्य को गरीबी के दुश्चक्र से विधाता भी नहीं निकाल सकते। तो सवाल ये भी है कि दस साल में इन 70 फीसदी लोगों को राहत देने के लिए क्या किया गया ? कागज पर योजनाओं और कार्यक्रमों कोई कमी नजर नहीं आती है, मगर दस साल में सिंचिंत क्षेत्र में नाममात्र का इजाफा हो सका है। बाकी उपलब्धियां भी ऐसी ही हैं और कुल जमा निष्कर्ष ये है कि राज्य के सकल घरेलु उत्पाद में कृषि का योगदान सिर्फ 11 फीसदी का है। 11 फीसदी सकल घरेलु आय पर 70 फीसदी झारखंडी जीते हैं, इसीलिए यहां की प्रति व्यक्ति आय को अन्याय बताकर वामपंथी चरमपंथ की फ्रेंचाइजी बांटी जा रही है। इस धरती की गोद में बच्चे गरीबी का निवाला बनते हैं और इसी धरती की कोख में रत्नों का खजाना है। भारत के कुल खनिज भंडार का 40 फीसदी सिर्फ झारखंड में है। लगभग 80 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले इस राज्य में कम से कम 40 तरह के खनिज पाए जाते हैं और कोकिंग कोल, यूरेनियम और पायराइट जैसे खनिज में झारखंड का एकाधिकार है। औद्योगिकरण के लिए ज़रूरी दूसरे संसाधन, जैसे – जलस्रोत, जैव विविधता से परिपूर्ण भूमि, संतुलित मौसम, उर्जा के स्रोत और मानव संसाधन, किसी चीज की कमी नहीं है। ढाई लाख करोड़ के निवेश के लिए एमओयू पर हस्ताक्षर करने वाले उद्यमियों-उद्योपतियों को पता है कि रत्नगर्भा-शष्य-श्यामला धरती पर कदम रख लेना लक्ष्मी के वरदान से कम नहीं। समझाने की ज़रूरत नहीं कि ढाई लाख करोड़ अगर इस राज्य में आने वाले थे तो किसी की सूरत देखकर नहीं, कुदरत का खजाना देखकर और अगर वो आते-आते रुक गए तो इसलिए कि न्योता देने वालों ने तोरणद्वार तो बनाए थे मगर सड़क बनवाई ही नहीं थीं। नए निवेश कुपोषित झारखंड के लिए पोषक तत्वों का काम कर सकते हैं। लेकिन नए निवेश समझौता-ज्ञापन तक सीमित हैं और पहले से चले आ रहे राज्य के सार्वजनिक उपक्रम सफेद हाथी बनते जा रहे हैं। पिछले दस सालों में झारखंड में सकल घरेलु उत्पाद में जो मामूली वृद्धि दर्ज की है, उसका ज्यादातर श्रेय सेवा क्षेत्र को जाता है, जो स्थानीय कारकों से कम और विश्वव्यापी बयार से ज्यादा प्रभावित है। इसमें टेलीकॉम, बीमा, बैंकिंग जैसे क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र के विकास के लिए भी झारखंड में तमाम प्रेरणाएं हैं लेकिन आधारभूत संरचना और माहौल के अभाव में अपेक्षित विकास नहीं हो रहा है। आज के युग में जहां सूचना सबसे बड़ा अस्त्र माना जाता है, झारखंड की आर्थिक गतिविधियों से संबंधित बुनियादी आंकड़े हासिल करना भी टेढ़ी खीर साबित होता है। तात्पर्य ये है कि दस साल बाद नया राज्य विकास और विकास के न्यायपूर्ण वितरण के हर मोर्चे पर नाकामयाब दिखाई देता है। लेकिन तथ्यों पर आधारित तार्किक विश्लेषण ये भी कहता है कि अनुकुल माहौल पैदा करने भर की ज़रूरत है, झारखंड की तस्वीर बदलने लगेगी। अब सवाल है कि ‘युग का जुआ’ उठाएगा कौन ? क्योंकि अलग राज्य के आंदोलन ने कभी इतनी थकान नहीं दी थी, जितनी थकान राज्य मिलने के बाद मिली निराशा ने दी है। यहां उदासीनता घर कर गई है। कृषि त्रस्त, उद्योग पस्त, व्यवस्था व्यस्त फिर भी सूरज अस्त तो झारखंड मस्त। आधी रात को पैदा हुए राज्य में सवेरा आना अभी बाकी है। सुस्ता ले,थकान मिटा ले, लेकिन उसके बाद तो झारखंड जागेगा, क्योंकि अस्तित्व में आने के बाद से वो गुरबत और जहालत के अंधेरों में ही सही, सवालों से टकरा रहा है।
लेखक : - मनोज श्रीवास्तव